भारतीय संस्काराः

भारत के संस्कार 

संस्काराः  स्न्यतमं वैशिष्ट्यं विद्युते यत् जीवने इह समये समये संस्कारा अनुष्ठिता भवन्ति। अद्य संस्कारशब्दः सीमितो व्यङग्यरूपः प्रयुज्यते किन्तु संस्कूतेरुपकरणमिदं भारतस्य व्यक्तित्वं रचयति । विदेशे निवसन्तो भारतीयाः संस्कारान् प्रति उन्मुखा जिज्ञासवश्च। पठेऽस्मिन् तेषां संस्काराणां संक्षिप्तः परिचयो महत्त्वञ्च निरूपितम्।

भारतीय संस्कृति की एक महत्त्वपूर्ण विशिष्टता है कि इसमें जीवन में समय-समय पर संस्कारों का अनुष्ठान होता है आजकल संस्कार शब्द संकुचित व्यंग्यरूप में प्रयुक्त होता है, परंतु संस्कृति का उपकरण यह भारत के व्यक्तित्व की रचना करता है। विदेश में रहने वाले भारतीय संस्कारों के प्रति चैतन्य और जिज्ञासु हैं। इस पाठ में उन संस्कारों का संक्षिप्त परिचय एवं महत्त्व निरूपित किया गया है।

 

1. भारतीयजीवने प्राचीनकालतः संस्काराः महत्त्वमधारयन् । प्रावीनसंस्कृतेरभिज्ञानं संस्कारेभ्यो जायते। अत्र ऋषीणां कल्पनासीत् यत् जीवनस्य सर्वेषु मुख्यावसरेषु वेदमन्त्राणां पाठ: वरिष्ठाणाम् आशीर्वादः होम: परिवारसदस्यानां सम्मेलनं च भवेत्। तत् सर्वं संस्काराणामनुष्ठाने संभवति। .एवं संस्काराः महत्त्वं धारयन्ति। किञ्च संस्कारस्य मौलिकः अर्थ: परिमाज्जनरूपः गुणाधानरूपश्च न. विस्मर्यते। अतः संस्काराः मानवस्य क्रमशः परिमार्ज़ने दोषापनयने गुणाधाने च योगदानं कुर्वन्ति।

हिन्दी अनुवाद : भारतीय जीवन में प्राचीन काल से संस्कारों का महत्त्व रहा है। प्राचीन संस्कृति की पहचान संस्कारों से होती है। यहाँ ऋषियों की कल्पना थी कि जीवन के सभी मुख्य अवसरों पर वेदमंत्रों का पाठ, गुरु जनों का आशीर्वाद होम तथा परिवार के सदस्यों का एकत्रीकरण हो। वह सब संस्कारों के अनुष्ठान के अवसर पर ही संभव है। इस प्रकार ही संस्कार महत्त्व धारण करते हैं। परंतु संस्कार का मौलिक अर्थ शुद्धीकरण अर्थात् परिष्कार और गुणों का ग्रहण अर्थात्आ रोपण न भूलना चाहिए। अत: संस्कार मानवों के शुद्धीकरण में, दोषों को दूर करने में तथा गुणों को गहण करने में योगदान करते हैं।

2. संस्काराः प्रायेण पञ्चविधाः सन्ति-जन्मपूर्वाः:त्रयः, शैशवाः षट्, शैक्षणिका: पञ्चे गृहस्थसंस्कारः विवाहरूपः एकः मरणोत्तरसंस्कारश्चैकः। एवं षोडश संस्कारा: भवन्ति जन्मपूर्वसंस्कारेषु गर्भाधानं पुंसवनं सीमन्तोनयनं चेति त्रयो भवन्ति। अत्र गर्भरक्षा, गर्भस्थस्य संस्कारारोपणम् गर्भवत्याश्च प्रसन्नता चेति प्रयोजनं कल्पितमस्ति। शैशवसंस्कारेषु जातकर्म, नामकरणम्, निष्करमणम्, अन्नप्राशनम्, चूडाकर्म, कर्णवेध श्चेति क्रमशो भवन्ति।

हिन्दी अनुवाद : संस्कार प्राय: पाँच प्रकार के होते हैं- जन्म पूर्व के तीन, शैशव काल के छः, शिक्षा ग्रहण काल में पॉाँच, विवाहरूप में एक गृहस्थ संस्कार और एक मरणोपरांत संस्कार। इस प्रकार सोलह संस्कार होते हैं। जन्मपूर्व संस्कारों में गर्भाधान, पुंसवन और सीमन्तोनयन ये तीन संस्कार होते हैं। यहाँ (इन संस्कारों का) गर्भरक्षा, गर्भस्थ शिशु में उत्तम संस्कारों का आरोपण तथा गर्भवती स्त्री की प्रसन्नता प्रयोजन माना गया है। शैशवकाल के संस्कारों में क्रमश: जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण अन्नप्राशन, चूडाकर्म तथा कर्णवेध होते हैं।

3. शिक्षासंस्कारेषु अक्षरारम्भ:, उपनयनम्, वेदारम्भ:, केशान्तः समावर्त्तनञ्चेति संस्काराः  प्रकल्पिताः। अक्षरारम्भे अक्षरलेखनम् अङ्कलेखनं च शिशुः प्रारभते उपनयनसंस्कारस्य अर्थ: गुरुणा शिष्यस्य स्व गृहे नयनं भवति । तत्र शिष्यः शिक्षानियमान् पालयन्अ ध्ययनं करोति। ते नियमा: ब्रह्मचर्यक्रते समाविष्टा: । प्राचीनकाले शिष्यः ब्रह्मचारी इति कथ्यते स्म। गुरुगृहे एव शिष्यः वेदारम्भं करोति स्म। वेदानां महत्त्वं प्राचीनशिक्षायाम्   उत्कृष्ट मन्यते स्म। केशान्तसंस्कारे गुरुगृहे एव शिष्यस्य प्रथमं क्षौरकर्म भवति स्म। अत्र गोदानं मुख्यं कर्म। अतः साहित्यग्रन्थेषु अस्य नामान्तरं गोदानसंस्कारोऽपि लभ्यते समावर्त्तनसंस्कारस्योह्देश्यं शिष्यस्य गुरुगृहात् गृहस्थजीवने प्रवेशः। शिक्षावसाने गुरुः शिष्यान् उपदिश्य गृहं प्रेषयति । उपदेशेषु प्रायेण जीवनस्य धर्माः प्रतिपाद्यन्ते। यथा-सत्यं वद, धर्म चर, स्वाध्यायान्मा प्रमदः इत्यादि।

हिन्दी अनुवाद : शिक्षाकाल के संस्कारों में अक्षरारम्भ, उपनयन, वेदारम्भ, केशान्त और समावर्तन संस्कार कल्पित किये गये हैं। अक्षरारम्भ में शिशु अक्षरलेखन तथा अङ्कलेखन आरम्भ करता है। उपनयन संस्कार का अर्थ गुरु द्वारा शिष्य को अपने घर ले जाना होता है। वहाँ शिष्य शिक्षा के नियमों का पालन करते हुए अध्ययन करता है। वे नियम ब्रह्मचर्य व्रत में शामिल हैं। प्राचीन काल में शिष्य ब्रह्मचारी कहा जाता था। गुरु के घर पर ही शिष्य वेद का आरम्भ करता था। प्राचीन शिक्षा में वेदों का अत्यधिक महत्त्व था। केशान्त संस्कार में गुरु के घर पर ही पहला क्षौरकर्म होता था। इसमें गोदान मुख्य कर्म था। इस कारण साहित्य ग्रन्थों में इसका अन्य नाम गोदान संस्कार भी प्राप्त होता है। समावर्तन संस्कार का उद्देश्य शिष्य का गुरु के घर से वापस गृहस्थ जीवन में प्रवेश था। शिक्षा समाप्ती पर गुरु शिष्यों को उपदेश देकर घर भेजता था उपदेशों में प्रायः जीवन का धर्म प्रतिपादित होता था। जैसे- सत्य बोलो, धर्म का आचरण करो, स्वाध्याय में प्रमाद मत करो इत्यादि।

4. विवाहसंस्कारपूर्वकमेव मनुष्यः वस्तुतो गृहस्थज़ीवनं प्रविशति। विवाहः पवित्रसंस्कारः मतः यत्र नानाविधानि कर्मकाण्डानि भवन्ति। तेषु वाग्दानम्, मण्डपनिर्माणम् , वधूगृहे वरपक्षस्य स्वागतम्, वरवध्वेः परस्परं निरीक्षणम्, कन्यादानम्, अग्निस्थापनम्, पाणिग्रहणम्, लाजाहोमः, सप्तपदी, सिन्दूरदानम् इत्यादि। सर्वत्र समानरूपेण विवाहसंस्कारस्य प्रायेण आयोजनं भवति। तदनन्तरं गर्भाधानादयः संस्काराः पुनरावर्तन्ते जीवनचक्रं च भ्रमति । मरणादनन्तरम् अन्त्येष्टिसंस्कारः अनुष्ठीयते। एवंमहत्त्वपूर्णमुपादानं संस्कारः इति।

हिन्दी अनुवाद : विवाह संस्कार होने के बाद ही मनुष्य वस्तुतः गृहस्थ जावन में प्रवेश करता है। विवाह पवित्र संस्कार माना जाता है जिसमें नाना प्रकार के कर्मकाण्ड सम्पन्न होते हैं। उनमें वाग्दान, मण्डपनिर्माण, वधू के घर में वरपक्ष का स्वागत, वर वधू का एक दूसरे का निरीक्षण, कन्यादान, अग्नि की स्थापना, पाणिग्रहण, धान के लावे से हवनं, सप्तपदी, सिन्दूरदान इत्यादि होते हैं। विवाहसंस्कार का प्राय: सर्वत्र समान रूप से आयोजन होता है। पुन: गर्भाधान आदि संस्कारों की पुनरावृत्ति होती है और जीवन चक्र आगे चलता है। मरने के बाद अन्त्येष्टि संस्कार सम्पन्न होता है।इस प्रकार संस्कार भारतीय जीवन दर्शन का मुख्य स्रोत है।

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